ज्ञान के निर्माण के लिए प्रमुख सिद्धांत -Theories of Construction of Knowledge
ज्ञान के निर्माण के लिए प्रमुख सिद्धांत निम्न रूप से है-
1. अनुभववादी सिद्धांत(Theory of Empiricism)-
इस सिद्धांत के अनुसार अनुभव ज्ञान की जननी है। अनुभववाद के जन्मदाता ब्रिटिश दार्शनिक जॉन लॉक के अनुसार”जन्म के समय बालक का मन एक कोरे कागज के समान होता है,जिस पर कुछ भी लिखा जा सकता है” जैसे जैसे वह बाहरी जगत के संपर्क में आता है, संवेदनाओं के रूप में वस्तुओं के चिन्ह मस्तिष्क की इस खाली पट्टी पर अंकित होते हैं इस प्रकार ज्ञान की सामग्री बाहर से आती है।
जान जन्मजात नहीं, परंतु अर्जित है सभी ज्ञान अनुभव द्वारा प्राप्त किया जाता है। अनुभव को समूचे ज्ञान का स्रोत माना जाता है। यह हमारे मस्तिष्क या मन के बाहर से आता है यह स्वयं मन के अंदर, जन्म के पूर्व से ही निहित नहीं होता।
मनुष्य को ज्ञान विभिन्न इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त संवेदना ओं के द्वारा होता है। अनुभववाद के प्राचीन रूप में ज्ञान प्राप्ति में बुद्धि का तनिक भी सहयोग स्वीकार नहीं किया जाता।
आधुनिक अनुभव वादियों ने बौद्धिक प्रक्रियाओं की प्राथमिकताओं को ज्ञान विस्तार में अस्वीकार तो नहीं किया है परंतु वे यह कह देते हैं कि इस भौतिक सहयोगी अंतिम उत्पत्ति अनुभव ही है।
दूसरे शब्दों में बुद्धि ज्ञान में कुछ कमी कर सकती है, किंतु इस कमी की सत्यता केवल अनुभव द्वारा ही प्राप्त होती है। अनुभववादियों के अनुसार ज्ञान पूर्ण रूप से बहरी है। और उस पर मन अथवा मस्तिष्क का किसी भी प्रकार का आंतरिक निर्धारण नहीं है। समस्त ज्ञान का अंतिम उद्गम स्थल अनुभव है।
2. बुद्धि वाद का सिद्धांत(Theory of Rationalism)-
सुकरात और प्लेटो ने यह सिद्धांत दिया है कि सत् ज्ञान की उत्पत्ति बुद्धि से होती है। उन्होंने यह भी कहा कि इंद्रिय ज्ञान असत् और अस्थाई है या एक काल्पनिक है।
इस दृष्टि से उन्हें बुद्धि वाद का आदि प्रवर्तक कहा जा सकता है। ज्ञान मीमांसा के स्वरूप और स्रोत संबंध का दूसरा प्रमुख सिद्धांत बुद्धि वाद का सिद्धांत है। बुद्धिवादियों के अनुसार समस्त ज्ञान बुद्धि पर आधारित है। केवल बुद्धि के द्वारा ही निश्चित सत् और सार्वभौमिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
बुद्धि ज्ञान का अंतिम प्रमाण है।बुद्धि हमें जन्म से मिलती है और उसी से हम समस्त ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान प्रत्यय के रूप में होता है इसलिए यह कहा जा सकता है कि हमारे यह प्रत्येक जन्म से हमारे साथ हैं अतः जन्मजात हैं।
इस प्रकार के विचारको को हम बुद्धि वादी और उनके इस बुद्धि के ज्ञान की उत्पत्ति मारने के सिद्धांत को बुद्धिवाद कहते हैं।
उनके विचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बुद्धिवाद वह वाद है जिसके अनुसार ज्ञान के कुछ प्रत्येक जन्मजात होते हैं। ज्ञान निर्माण के सिद्धांत
विधि वाद के अनुसार वास्तविक सत्य गणितिक निर्देशन अथवा प्रमाण से प्राप्त होते हैं। इन निर्देशों या प्रमाणों आधार कुछ स्वयंसिद्धिया होती है।
इन स्वयं सिद्धियों से आगे ज्ञान की उत्पत्ति होती है यह विधि (1) तर्क सत्य- सामर्थ्य (2) स्वयं सिद्धियों के लक्षण के आधार पर प्रमाणित होती है।
बुद्धि वाद के अनुसार हमारे समस्त सत् जन्मजात एवं सार्वभौम ज्ञान अत्यावश्यक है। ये अनुभव पर आधारित नहीं है, अपितु हमारा अनुभव ही उन पूर्व निहित प्रत्ययो पर निर्भर होता है।
हमारे मन के जन्मजात प्रत्यय हमें सत् ज्ञान देते हैं और जब हम इन प्रत्यय की सीमा को लांघने लगते हैं तब हमारा ज्ञान कल्पना आदि के रूप में होता है और वह सत् एवं सार्वभौमिक की परिधि से दूर हट जाता है।
ज्ञान प्रत्यक्षीकरण या संवेदना का परिणाम नहीं, यह अनुभव की पूर्व है इस सिद्धांत के अनुसार बुद्धि वाद को सहज ज्ञानवाद भी कहते हैं।
3. प्रायोगिक सिद्धांत (experimental theory)-
यह सिद्धांत ज्ञान के एंद्रिक व तार्किक इन दोनों स्तरों से संबंध रखता है। प्रयोजनवाद जीवन का सिद्धांत है जो प्रयोगों पर आधारित ज्ञान के सिद्धांत को स्वयं में समेटे हुए हैं। आजकल प्रायोगिक सिद्धांत ज्ञान प्राप्त करने की इस विधि का समर्थन करते हैं। उसके अनुसार यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने की सर्वोत्तम विधि है प्रयोग या अनुभव।
वही ज्ञान उपयोगी है जिसे हम करके, अपने अनुभव के आधार पर प्राप्त करते हैं। ज्ञान की सत्यता- आसत्यता की जांच प्रयोग के द्वारा की जा सकती है। इस प्रकार ज्ञान प्राप्ति प्रायोगिक विधि पर आधारित होने के कारण ही ‘प्रयोजनवाद’ को ‘प्रयोगवाद’ भी कहा जाता है।
इस विधि के अनुसार जैसे जैसे व्यक्ति नए-नए अनुभव प्राप्त करता है वैसे वैसे उसके पूर्व अर्जित ज्ञान में निखार व सुधार आ जाता है।
4. संवेद विवेकपूर्ण सिद्धांत ( Sense Rationalisation theory)-
यह सिद्धांत अरस्तु द्वारा दिया गया। इसमें अरस्तु ने पूर्ण अनुभववाद हुए पूर्ण तर्कवाद को स्वीकार नहीं किया।
अरस्तु का मानना था कि चेतन सामग्री की क्षमता को तर्क के द्वारा वास्तविक बनाया जाता है और इस प्रकार तुम्हारे पास विचारों, तथ्यों, सिद्धांतों तथा ज्ञान प्रणाली का विस्तृत स्वरूप होता है। कांत के अनुसार अनुभववाद और बुद्धिवाद दोनों अंधविश्वासी है। उसके अनुसार हम अनुभव के साथ ज्ञान के उद्देश्य के लिए कार्य आरंभ कर सकते हैं, परंतु अनुभव स्वयं में ज्ञान प्रदान नहीं करते। इसमें ज्ञान को रूप देने के लिए तर्क की आवश्यकता होती है।आजकल के आधुनिक विद्यालय मस्तिष्क तथा चेतना दोनों के प्रशिक्षण के कार्य करते हैं।शिक्षण कौशल मस्तिष्क तथा चेतना की सहायता से ज्ञान प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों को अभी प्रेरित करते हैं। ताकि वे स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकें।
5. योग सिद्धांत (Yogic Theory)-
योग सिद्धांत के मुख्य प्रतिनिधि पतंजलि इस सिद्धांत का काफी महत्व दर्शन के क्षेत्र में बताया है। इस siदांत के अंतर्गत उन्होंने बताया है कि मस्तिष्क की एक प्रमुख विशेषता है कि यह व्यग्र है व इसके साथ-साथ इसमें अज्ञानता है जो सभी शारीरिक तथा मानसिक विचलनो की जड़ है।
योग का मुख्य उद्देश्य इस मानसिक चंचलता को नियंत्रित करता है तथा इस सिद्धांत को एक बिंदु पर केंद्रित करना है और सभी बुराइयों की जड़ अज्ञानता को जड़ से खत्म करना है। यह केवल योग की साधना के विकास से ही संभव है जिसमें कुछ शारीरिक तथा मानसिक क्रियाएं करवाई जाए, जिससे केंद्रीयकरण की सहायता से मानसिक संचेतना को उच्च स्तर तक ले जाया जा सके।
जब एक जोगी इस स्तर तक पहुंच जाता है तो ज्ञान आत्मा को अनुभव करने लगता है। योग के सिद्धांत के बल पर नैतिक क्षेत्र में जो स्थाई रूप से जरूरी है, नैतिकता पर चलने को अभीप्रेरित करता है।
जो नैतिकता, सत्यता की अच्छाइयों रूपी ज्ञान हम योग के बल पर सीख सकते हैं वह दूसरे किसी सिद्धांत से इतना सहज नहीं है। ज्ञान निर्माण के सिद्धांत
6. समीक्षावाद का सिद्धांत- (Criticism theory)-
आधुनिक दर्शन का महारथी, प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक इमैनुअल कांट ज्ञान के कारण की खोज के लिए बुद्धिमान और अनुभव बाद दोनों की और बड़ा। उसने पक्षपात रहित होकर इन दोनों वादों और ज्ञान की शक्ति की परीक्षा की। इसलिए उसके निर्धारित सिद्धांतों को परीक्षा वाद का नाम दिया। इसके अनुसार दार्शनिक प्रणाली न बुद्धिमान की प्रणाली है और अनुभववाद की, परंतु समस्या की प्रणाली है।
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