टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्धों की विवेचना

Aims of Education, curriculum and Teacher Pupil relationship according to Tagore

दोस्तों आज हम यहाँ पर रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य, अर्थ, पाठ्यक्रम और शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध के बारे में जानेंगे… टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा का अर्थ-

टैगोर शिक्षा के व्यापक अर्थ को मानते हैं और उनका कहना है कि-
शिक्षा को व्यक्ति के शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक विकास में सहायता होनी चाहिए।

साथ ही शिक्षा व्यावहारिक भी होनी चाहिए और उसमें सामाजिक परम्पराओं, आदर्शों, आवश्यकताओं, मूल्यों एवं मान्यताओं को मान्यता मिलनी चाहिए।

शिक्षा के प्रति टैगोर का दृष्टिकोण व्यापक एवं उदार है। वह लिखते हैं-“उच्चतम शिक्षा वह है जो हमारे जीवन में सभी अस्तित्वों के साथ सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध बनाती है।

” जीवों या वस्तुओं में सामंजस्य या समरसता तभी आ सकती है जबकि व्यक्ति की समस्त शक्तियाँ पूरी तरह से विकसित हो जायें।इस स्थिति को ही टैगोर पूर्ण मनुष्यत्व मानते हैं और उनका कथन है कि इस पूर्ण मनुष्यत्व की प्राप्ति ही शिक्षा का उद्देश्य है। टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

टैगोर यह कहते हैं कि केवल ज्ञानार्जन ही शिक्षा नहीं है बल्कि
शिक्षा के द्वारा बालक की समस्त क्षमताओं का विकास होना चाहिए। टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

रवीन्द्रनाथ टैगोर की शिक्षण विधि-

टैगोर ने अपनी शिक्षण विधि में उपर्युक्त शिक्षण सिद्धान्तों को मान्यता प्रदान की है।
टैगोर का यह विश्वास था कि शिक्षण विधि वास्तविक मान्यताओं पर आधारित होनी चाहिए।
वह लिखते हैं, “वास्तविक वस्तुओं के सम्पर्क में आने से जो छात्रों के सामने उपस्थित हैं, उनमें निरीक्षण तथा तर्क-शक्ति का विकास होता है।” टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
उन्होंने आधुनिक युग की शिक्षा पद्धति की तीखी आलोचना की है और कहा है कि हमारे विद्यालय बालकों के सर्वांगीण विकास में सहायक नहीं।
वास्तव में हमारे विद्यालय ऐसी शिक्षण फैक्टरियाँ हैं जहाँ जीवन की आवश्यकताओं, रुचियों, अभिरुचियों आदि पर ध्यान दिये बिना शिक्षण प्रदान किया जाता है।
छात्रों को स्वप्रयास और स्व-चिन्तन का अवसर नहीं प्रदान किया जाता है। वहाँ क्रिया द्वारा सीखने पर बल दिया जाता है। टैगोर स्व-प्रयास और स्व-चिन्तन द्वारा सीखने पर बल देते हैं।
उन्होंने अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि शिक्षण पद्धति इस प्रकार की होनी चाहिए कि बालक स्वयं करके सीखे वह छात्रों को किसी-न-किसी प्रकार की दस्तकारी को सीखना भी आवश्यक मानते हैं।
‘करके सीखने’ की मान्यता प्रदान करते हुए वह भ्रमण द्वारा सीखने को भी महत्त्व प्रदान करते हैं। उनके अनुसार, “भ्रमण करते हुए पढ़ाना शिक्षा की सर्वोत्तम विधि है।” टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
भ्रमण द्वारा जब छात्र स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा सीखता है तो उसे स्थायी ज्ञान की प्राप्ति होती है।
टैगोर पाठ्य-पुस्तक विधियों के साथ-साथ वाद-विवाद, प्रश्नोत्तरी विधि को शिक्षण में प्रयुक्त करना चाहते थे। उनके मत में व्याख्यान विधि अनुपर्युक्त होती है। टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

यह ठीक है कि टैगोर ने शिक्षा पर कोई पुस्तक नहीं लिखी
परन्तु फिर भी उनके लेखों, रचनाओं, व्याख्याओं आदि में उनकी शिक्षा के उद्देश्य के सम्बन्ध में प्रकाश पड़ता है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य-

यहाँ हम उनके अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों की चर्चा संक्षेप में कर रहे हैं-

  1. संवेगात्मक विकास टैगोर शरीर और मन के विकास के साथ ही संवेगों का विकास भी शिक्षा का उद्देश्य स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि संगीत चित्रकला और कविता के द्वारा बालक को संवेगात्मक प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए जिससे कि उनमें प्रेम, दया, सहानुभूति आदि की भावनायें उत्पन्न हो सकें। टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

 

  1. जीवन के सामंजस्य की क्षमता का विकास टैगोर की यह भी मान्यता थी कि शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिये कि बालक जीवन की परिस्थितियों के साथ पूरी तरह से सामंजस्य स्थापित कर सके। यदि शिक्षा जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने में समर्थ नहीं है तो वह शिक्षा व्यर्थ है। टैगोर के शब्दों में, “इस समय हमारा ध्यान चाहने वाली प्रथम और महत्त्वपूर्ण समस्या हमारी शिक्षा और हमारे जीवन में सामंजस्य स्थापित करने की है।” टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

 

  1. सामाजिक विकास टैगोर शिक्षा के माध्यम से बालक के वैयक्तिक विकास के साथ ही उसका सामाजिक विकास भी करना चाहते हैं। यद्यपि यह ठीक है कि वह प्रकृति के स्वतंत्र वातावरण में बालक को शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं परन्तु इसके साथ ही वे यह भी कहते हैं कि बालक में सामाजिक गुणों का विकास करना भी शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। जो शिक्षा बालकों में सामाजिक गुणों का विकास करने में समर्थ नहीं होती वह वास्तविक शिक्षा नहीं है।

टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

  1. नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षाविकास-हम पहले ही इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि टैगोर अति नैतिकवादी हैं और आध्यात्मिक क्षेत्र में उनकी गहन आस्था है। यही कारण है कि टैगोर शिक्षा का उद्देश्य नैतिक और आध्यात्मिक विकास भी मानते हैं। उनका विचार था कि शिक्षा बालकों में नैतिक गुणों का विकास करने में समर्थ होनी चाहिए। वास्तविक नैतिक शिक्षा वही है जिसमें आध्यात्मिकता का भी पुट हो। अनुशासन, शान्ति, धैर्य आदि गुणों का मानव में होना आवश्यक है और उनका विकास शिक्षा के माध्यम से किया जाना चाहिए। मानव, मानव इसलिए है कि उसमें नैतिकता और आध्यात्मिकता की भावना होती है। यदि शिक्षक बालकों में नैतिक गुणों के विकास करने में समर्थ नहीं है और उनमें आध्यात्मिक भावना नहीं ला पाती है तो वह व्यर्थ है। नैतिकता के सम्बन्ध में टैगोर ने लिखा है, “यह सत्य है कि हमको पश्चिम से विज्ञान अपनाना है किन्तु यह हमारे लिए बड़ा अपमानजनक है यदि हम अपनी निजी नैतिक बौद्धिक सम्पत्ति भूल जाते हैं जो बहुत ही अधिक मूल्यवान है।”

टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

  1. शारीरिक विकासटैगोर यह मानते हैं कि शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालक का शारीरिक विकास है। बालक का शारीरिक विकास तभी हो सकता है जबकि बालक को प्रकृति के स्वतंत्र वातावरण में खेलने-कूदने, उठने-बैठने और अध्ययन करने की स्वतंत्रता प्रदान की लिखते हैं, “पेड़ों पर चढ़ने, तालाबों में डुबकियाँ लगाने, फलों को तोड़ने और बिखेरने और प्रकृति माता के साथ नाना प्रकार की शैतानियाँ करने से बालकों के शरीर का विकास, मस्तिष्क से का आनन्द और बचपन के स्वाभाविक आवेगों से सन्तुष्टि प्राप्त होती है।” इससे स्पष्ट है कि उनके अनुसार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य शारीरिक विकास है क्योंकि शारीरिक विकास के बिना मानसिक और बौद्धिक विकास संभव नहीं है। टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

 

  1. मानसिक या बौद्धिक विकासशिक्षा का उद्देश्य केवल मात्र शरीर का विकास ही नहीं है, बल्कि शरीर के विकास के साथ ही मानसिक या बौद्धिक विकास भी शिक्षा का उद्देश्य है। पुस्तकों से सहायता प्राप्त करना मानसिक विकास का केवल एक अंग मात्र है। वास्तविक मानसिक विकास प्रकृति एवं जीवन की वास्तविक परिस्थितियों का प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान करना ही हो सकता है। टैगोर अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं-” पुस्तकों के बजाय प्रत्यक्ष रूप से जीवित व्यक्तियों को जानने का प्रयास करना शिक्षा है। इससे न केवल कुछ ज्ञान प्राप्त होता है जितना कक्षा में सुने जाने वाले व्याख्यानों से होना असम्भव है। यदि हमारे मस्तिष्क को संवेगों और कल्पना की वास्तविकता से पृथक् कर दिये जाते हैं, तो वे निर्बल तथा विकृत हो जाते हैं।” टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

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